एक बार मै हरिद्वार से रिशीकेष पैदल यात्रा पर गया। रास्ते मे एक भजन मण्डली के साथ-२ चल रहा था। कुछ लोग पूरी मस्ती मे और कुछ महज रास्ता तय करने की गरज से साथ थे। शायद उनकी समझ मे आ रहा था कि रास्ता कठिन हो तो भजन करो। और एसा है भी। रास्ते मे जगह-२ कुछ साधु धूनी रंवाए समाधिष्ट ध्यान लगाए बैठे थे। हम आगे बढते जा रहे थे। लेकिन वो साधु जो समाधि मे बैठा है शायद हम से कही आगे निकला हुआ है। मुक्ति की खोज मे। आदमी अकेला है पर वास्तव मे अकेला नही है, और भीड मे होकर भी कितना अकेला है। पर ये सृष्टि इतनी सक्षम है अापका हिस्सा आपको आपके कर्म के हिसाब से लौटाती जरूर है।
कविता:
जिन्दगी का बस यही एक आचरण है कि
एक कदम टिकता है तो दूसरा लॉघता है।
ये क्रम अपने कर्म में,
मुक्ति खोजता है
जीवन बॉटता है।
सीखता है, सिखाता है
फिर, चला जाता है।
पर कुछ तो है, जो अधूरा रह जाता है।
ख्वाहिशों का सिन्दूर
मांग भर लाता है,
एक बन्दिश, खुद ही रचता है,
लय टूटती जुडती है
पर एक धुन सी लगी है,
फिर राग तोडी के
खुद ही गुनगूनाता है।
गम इफरात हैं जैसे
इक भीड मे तुम,
माने तो साथ है
न मानोे तो भी।
अन्धेरो में तुम घुप्प से,
चुप्प सा सुख
यदा कदा
जुगनू की कौंध सा उठ्ठक बिठाता है।
टूटा हूआ था, अलग न था मै,
लम्हो की तरह लटका हुआ हूं मैं।
घडी के पैन्डुलम की टिक टिक सा
वक्त हूं दीवार पर दस्तक दे रहा हूं मैं।