मेरी हैरान कर देने की आदत से ये जमाना असमंजस मे था

मेरी हैरान कर देने की आदत से ये
ज़माना परेशानी में था।
मयखाने की ओर न जाने  क्यों कदम उठ गये,
शाम थी, और घर से शराब पीकर के निकला था।

न दम था शराब में कि कोई कशिश खींच लाती,
वही शाम को लौटा जो किसी सब्र की तलाश में निकला था।

मेरा घर मस्जिद और मयखाने के दरम्यॉ था,
खुदा की तलाश में बीचोबीच रहा कभी घर से दूर न निकला था।

चमचों की उथली तारीफ ने मुझे अच्छा बना दिया
ये तो बीमार का हौंसला था, शरीफों ने तो हमें कहीं का न रखा था।

कभी मैं सोचता हूं, शराब न मिलती तो क्या होता,
चारासाजों से ज्यादा मुझे,  खुदा पे भरोसा था।

दिल खुश हुआ ए साकी जो वाईज़ को तेरे दर पे बैठा देखा,
मैने भी पहले कलाई पकड़ी थी, फिर हाथ देखा था।

चारासाज-डाक्टर

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