एक सच्चा किसा
यह बात उन दिनों की है जब मैं छठी क्लास में पढता था। हमने इंग्लिश छठी से ही पढना शुरू की। मेरा एक दोस्त जिसका नाम मौहम्मद था बहुत ही बढ़िया अंग्रेजी बोलता था और हम उस वक्त ए बी सी सीख रहे थे। मैने उससे कई बार पूछा कि भाईजान इतनी बढिया अंगरेजी कैेसे बोल लेते हो । वो हंस के टाल देता था। कहता था इंग्लिश बोलने वालों के बीच रहा करो, इंग्लिश फिल्मे देखा करो तो बोलना आ जाएगी। वगैरह वगैरह़़…
मेरे उस दोस्त में कुछ तो बात ऐसी थी जो उसे बाकी दोस्तो से अलग करती थी।
फिर एक दिलचस्प वाक्या हुआ। स्कूल में फैन्सी ड्रेस का आयोजन हुआ। उसमे आप कुछ भी बनें या दो तीन मिनट का कोई स्किट करे। बस फिर क्या था
मौहम्मद ने एक छोटा सा आइटम तैयार किया और हमे सि़र्फ दो सैकण्ड के लिए एक पात्र के रूप मे लिया। नाम पुकारा गया और मौहम्मद मंच पर –
एक मैली सी बनियान में बूटपालिश करने वाले की भूमिका में नीचे पालिश की पेटी लेकर बैठ गया। दूसरी तरफ से मै मंच पर आया और पेटी पर पैर रक्खा पूछा “क्या लोगे”। बोला जो दे देना साब और पेटी की साइड से अखबार निकाला और बोला तबतक आप ताजा खबर पढें मैं पालिश करता हूं।
उसकी यही बात उसे बाकी पालीश वालों से उसे अलग करती थी। मेरी पहली खबर पर नजर पडी
” कल बाल-मजदूरी के खिलाफ प्रदर्शन”। मैने पूछा तुम्हारी उम्र क्या है। मुस्कुराते हुए बोला ” साब ये प्रदर्शन बाल मजदूरी के खिलाफ है बाल मजबूरी के खिलाफ नही है। मै कमाउंगा तो दो वक्त की रोटी चलती है साब। पटाक्षेप – पर्दा गिरता है। सारा माहौल तालियों से गूँज उठा।
जाहिर है पहला ईनाम मौहम्मद को ही मिला। स्टेज पर प्रिंसीपल साहेब ने मौहम्मद को बुलाया उसकी दिल खोलकर प्रशंसा की और कहा “मै तुम्हारे अभिनय से बहुत प्रसन्न हूं और इसलिये मै दस रूपये का अतिरिक्त ईनाम अपनी तरफ से भेंट करना चाहता हूं।” मौहम्मद ने हाथ जोडकर वो दस रू़पये यह कहकर लौटा दिये कि ” सर इस ईनाम का असली हकदार वो व्यक्ति होगा जिसने वास्तव में एक्टिंग की होगी। मेरा तो धन्धा यही है स्कूल से छूटने के बाद मै क्नाट प्लेस मे बूट पालिश ही करता हूं।”
(मैं स्तबध सा खडा देखता रह गया। और मुझे समझ आ गया था कि मौहम्मद इतनी बढ़िया अंग्रेज़ी कैसे बोल लेता था। वो विदेशियों के जूते पालिश करता था।)
यह कहकर मौहम्मद स्टेज से उतरा, कॉधे पर बूट पालिश की पेटी रक्खी और चल पडा अपने धन्धे की ओर। बूट-पालिश की पेटी के पीछे लिखा था –
“आदमी की औकात उसके जूते से पता लगती है और मैं उसे चमकाना बखूबी जानता हूं।”
मुझे नही मालूम मौहम्मद आज कहां है क्योकि वो सिर्फ एक साल ही और स्कूल में रहा। फिर स्कूल नही आया। पर मै अपनी इस लिखने की आदत का श्रेय उसी मौहम्मद को समर्पित करता हूं।……….
“हाँ वो एक बात ज़रूर बोलता था कि दोस्त ये मौहम्मद सुन्नी नहीं शिया है और जोर से ठाहका लगाता था।”
तुमने टटोला ही नहीं, उन अन्धेरों में बहुत कुछ है।
ये जागीर अन्धेरो की थी जो चरागों ने अपने पैरों तले दबा रक्खी है।
ये कहानी यहां खत्म नहीं होती है। इसमें और जटिलता आ गयी जब ये कहानी उसके कई
साल बाद एक सभागार में सुनाई।
सभा में एक बुज़ुर्गवार तालियाँ बजाते हुए उठे। वाईज़ लग रहे थे। उन्होने कहा कहानी बहुत सुन्दर है सराहनीय है ये कहानी और भी सुन्दर हो सकती है अगर आप इसका वो आखिरी वाक्या मिटा दें कि मौहम्मद सुन्नी नहीं शिया है।
मैने कहा “जी जैसा आप फरमाएं।”
रात में मुझे एक फोन आया और कहा कि “आप का वो सच्चा वाक्या सुना प्रेरणादायक है और ये भी सुना कि उसमें से आखिरी लाईन हटा दी है। हमारी भी एक इल्तिज़ा है आप सिर्फ मौहम्मद का नाम बदलकर महेश या महेन्द्र रख दीजिये.
वो आखिरी लाईन रखने की ज़रूरत भी नहीं रहेगी।
अन्त कहानी का क्या होना चाहिए आप पर छोड़ता ह़ूँ कृष्ण बिहारी नूर के शेर के साथ
“सच घटे या बढ़े, सच सच न रहे,
और झूठ की कोई इन्तिहा ही नहीं।”
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मनमोहक सुंदर सच्ची शानदार
कहानी
धन्यवाद
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Shukriya
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शुक्रिया
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Ji aap ke likhawat ka Kayal hu,,waqt ke kayanat nhi h mere pass ..jisse aap ke likhe huai or Kavita Ko samj saku…
Phir bhi Mohmand Naam bahut aacha h , plz don’t change or
Yeh kahani bahut aache h …
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बहुत ही सुंदर
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Shukriya
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शुक्रिया आपको इतना सुंदर लिखने के लिए । आपकी लेखनी प्रेरणादायक है ।
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Har baar ki tarah yeh kahani BHI dil ko Choo gayi Rakesh Sahab.
Hum likhne walo ki kahaniya bhi esi hee hoti hain, bas koi na koi likhna sikha kar dur ho jate hain, aur hum bas likhte hee reh jate hain.
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शुक्रिया
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